बहस के निहितार्थ : पवन श्रीवास्तव

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    अब समय आ गया है कि हमारे राजनैतिक दलों, वर्गों अथवा वरिष्ठजनों को मिलकर इस पर कठोर चिन्तन करना चाहिये। जब हम किसी समुदाय पर विचार-शून्यता का आरोप मढ़ते हैं और आक्रामक हो जाते हैं तो वहीं दूसरा वर्ग भी सुरक्षात्मक ढंग से अपना बचाव करने लग जाता है तथा आरोप-प्रत्यारोप के बीच असल मुद्दे नगण्य हो जाते हैं । कुछ दिन ढोल पीटे जाते हैं और फिर वही शून्यता समाज पर हावी हो जाती है। जबकि इसके विपरीत करना तो यह चाहिये कि हमें वर्गों अथवा समुदाय में फैली भ्रांतियों, मतभेदों को उन्ही की कसौटी पर कसना चाहिये। प्रत्येक वर्ग अथवा समुदाय चाहे वह हिन्दू हो अथवा मुसलमान दोनो को ही देशहित में अपने समाज के अंदर ही स्वचेतना से मंथन करना चाहिये और सर्वमान्य रास्ते खोजने चाहिये। आक्रमकता और सुरक्षात्मकता को छोड़ समाजों को स्वयं चिन्तन करने की आवश्यकता है।
    आरोप प्रत्यारोप का दौर समाप्त होना चाहिये तथा नई राह खोजने हेतु समाज को स्वयं ही अपने अच्छे व बुरे की समझ विकसित करने का कार्य प्रारंभ करना चाहिये। टीवी चैनलों पर बहस करने व आरोप प्रत्यारोप लगाने भर से मसले हल नही होते बल्कि इस कारण कटुता व वैमनस्य बढ़ता है, महज टीआरपी बढाने को लेकर ऐसी बहसें समाज को दिशा प्रदान नही करती बल्कि उन मुद्दों को और उलझाने का कार्य करती हैं। जबकि इसके उलट बिना किसी भय और पक्षपात के स्वचेतना निर्मित मस्तिष्क से समाज के अन्दर ही इस बहस को होना चाहिये और उन्हे ही इसके रास्ते निकालने के लिये प्रेरित करने की आवश्यकता है। जब इस प्रेरणा से समुदाय विशेष प्रेरित होकर मंथन व चिन्तन करेंगे तो निश्चित ही वह दिन दूर नही जब हम वास्तव में विश्व में देश को गौरवान्वित करेंगे।

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